ढोकरा कला


 ढोकरा कला , नाम से ही जाना जाता हे की ये एक प्राचीन कला. ये कला कांस्य की मुर्तिया बनाने के लिए पूरी दुनिया  फेमस हे . ये कला लगभग 5000 साल पुराणी कला हरप्पा कालीन कला से मिलती जुलती कला हे. मोहेंजोदारो में में प्राप्त कांस्य की मुर्तिया इसी ढोकरा कला से मिलता जुलाता उसीका समकालीन कला हे . चलिए इस कला को थोड़ी बिस्तार से जाने कुछ पॉइंट के हिसाब से.


ढोकरा कला का इतिहास क्या हे ?


ढोकरा कला एक बहुत पुराणी प्राचीन कला हे , ये कला आज से 5000 साल पुरानीकला हे. ''ढोकरा '' या "धोक्या" नाम से परिचित कला हे. 


मोहेंजोदारो से प्राप्त कांस्य मूर्तियां जैसे नृत्य करती हुई मूर्ति इसी कला के अंतर्गत आता हे. 


डोकरा मेटल  कास्टिंग तकनीक केलिए बिश्व प्रशिद्ध सिंधु सभ्यता में प्रयोग किया जाने बाला लॉस्ट वेक्स तकनीक का प्रयोग किया जाता हे. 


किस तरह से ढोकरा कला में मूर्तियां बनाई  जाती  हे ?


ढोकरा कला एक कठिन प्रक्रिया में हाथ से मुर्तिया बनाई जाने बलि एक ऐतिहासिक  कला हे,  ये कला कांस्य की मुर्तिया बनाने में पुरे बिश्व प्रशिद्ध हे.


इस कला के अंतर्गर ताम्बे और तीन को एक अनुपातिक रूप में मिला कर पिघलाई जाती हे और एक वेक्स का साँचा के अंदर डालकर मूर्ति की शेप दिया जाता हे.


इसके के लिए सबसे पहले खेत की  काली  मिटटी और चावल की भूसी को एक अनुपात में मिलाया जाता हे , उसके बाद उसी मिटटी से एक सांचे को बनाया जाता हे.


सांचे सूखने के बाद ऊके ऊपर नदी किनारे के एक प्रकार की मिटटी को लगाकर सूखे जाती हे, सूखने बाद उसके किसी चीज़ से पोलिश किया जाता हे और सुखाया जाता हे.


इसके बाद मधुमखहि के के छत्ते को किसी प्रक्रिया से धागा बनाई जाती हे, और उसी धागे को साचे के ऊपर कवर किया जाता हे और उसे जिस आकृति की मूर्ति बनानी होगी उसी आकृति की शेप दिया जाता हे.


सांचे सूखने ने बाद नदी किनारे की मिटटी और कोयले की पॉवडर को छान के एक मिश्रण बनायीं जाती हे. और उसी मिटटी को सांचे पे लेप लहै जाती हे और सुखाया जाता हे. 

 

सूखने बाद उसमे दीमक की मिटटी और चावल की भूसी से एक और मिश्रण मिटटी को उसी सांचे के ऊपर लेपि जाती हे और एक छेद बनाई जाती हे और एक कोन का शेप दिया जाता हे.


साँचा सूखने के बाद उसे एक भट्टी में उल्टा करके जलाया जाता हे जब तक की साँचा लाल  हो जाये और उसके अंदर की वेक्स बहार निकल जाये . 


जलने की प्रोसेस पूरा होने के बाद अब मेटल को को पिघलाई जाती हे एकदम पानी की जैसी , और उसी पानीनुमा मेटल को सांचे में कोन के जैसे बनाई गई चांचे के छेद में डाला जाता हे .


आखरी में साँचा ठंडा होने के कुछ समय बाद किसी लकड़ी नुमा हथोड़ी से आराम आराम से तोडा जाता और फि उसे साफ किया जाता हे.


ये कला बर्तमान में झारखण्ड, पश्चिम बंगाल , तेलंगाना और छत्तीसगड के बस्तर जिले में बिलुप्त की कगार पर उपलब्ध हे 





ये रिक्वेस्ट हे अगर आप ये ऐतिहासिक कला आपको कही पर दिखे तो कुछ जरूर ख़रीदे ...........